इदम टुडे न्यूज़ डेस्क / चंडीगढ़ । विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता की स्त्रियां अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ सज-धज कर अपने आँचल में फल और पकवान लेकर निकलती हैं तो लगता है जैसे संस्कृति स्वयं समय को चुनौती देती हुई कह रही हो, “देखो! तुम्हारे असँख्य झंझावातों को सहन करने के बाद भी हमारा वैभव कम नहीं हुआ है, हम सनातन हैं, हम भारत हैं, हम आर्यावर्त के धरोहर हैं। हम तबसे हैं जबसे तुम हो, और जबतक तुम रहोगे तबतक हमारा अस्तित्व भी रहेगा।”
जब घुटने भर जल में खड़ी व्रती की सिपुलि में बालक सूर्य की किरणें उतरती हैं तो लगता है जैसे स्वयं सूर्य भगवान बालक बन कर उसकी गोद में खेलने उतरे हों। स्त्री का सबसे भव्य, सबसे वैभवशाली स्वरूप मातृत्व का है। इस धरा को “भारत माता” कहने वाले बुजुर्ग के मन में स्त्री का यही स्वरूप रहा होता है। कभी ध्यान से देखिएगा छठ के दिन जल में खड़े हो कर सूर्य देव को अर्घ दे रही किसी स्त्री को, देखकर आपके मन में मोह नहीं श्रद्धा उपजेगी।
छठ वह प्राचीन पर्व है जिसमें राजा और रंक एक घाट पर शीश नवाते हैं, एक देवता को अर्घ देते हैं, और एक बराबर आशीर्वाद पाते हैं। धन और पद का लोभ मनुष्य को मनुष्य से दूर करता है, पर धर्म उन्हें साथ जोड़ता है। अपने धर्म और परंपरा के साथ होने का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि आप अपने समस्त पुरुखों के आशीर्वाद की छाया में होते हैं। छठ के दिन नाक से माथे तक सिंदूर लगा कर घाट पर बैठी स्त्री अपनी हजारों पीढ़ी की परंपरा की वाहक हीं नहीं होती है, बल्कि वह उन्ही का स्वरूप होती है। उसके आंचल में केवल फल नहीं होते, समूची प्रकृति समाई होती है।
वह एक सामान्य स्त्री सी नहीं, अन्नपूर्णा सी देवी दिखाई देती है। ध्यान से देखिये! आपको उनमें कौशल्या दिखेंगी, उनमें सीता दिखेगी, उनमें अनुसुइया दिखेगी, सावित्री दिखेगी… उनमें पद्मावती दिखेगी, उनमें लक्ष्मीबाई दिखेगी, उनमें भारत माता को छवि दिखेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके आँचल में बंध कर ही यह सभ्यता अगले हजारों वर्षों का सफर करने में समर्थ होगी ।
छठ डूबते सूर्य की आराधना का पर्व है। डूबता सूर्य इतिहास होता है, और कोई भी सभ्यता तभी दीर्घजीवी होती है जब वह अपने इतिहास को पूजे। अपने इतिहास के समस्त योद्धाओं को पूजे और इतिहास में अपने विरुद्ध हुए सारे सढयंत्रों याद रखे और उस गलती को न दुहराए। छठ उगते सूर्य की आराधना का पर्व है। उगता सूर्य भविष्य होता है, और किसी भी सभ्यता के यशश्वी होने के लिए आवश्यक है कि वह अपने भविष्य को पूजा जैसी श्रद्धा और निष्ठा से सँवारे… हमारी आज की पीढ़ी को सदैव इसका स्मरण रहे अगली जिम्मेदारी उनकी है … यही छठ व्रत का मूल भाव है। मैं खुश होता हूँ घाट जाती स्त्रियों को देख कर, मैं खुश होता हूँ उनके लिए राह बुहारते पुरुषों को देख कर, मैं खुश होता हूँ उत्साह से भरे बच्चों को देख कर… सच पूछिए तो यह मेरी खुशी नहीं, मेरी मिट्टी, मेरे देश, मेरी सभ्यता की खुशी है।
मेरे देश की माताओं! कल और परसों जब आदित्य देव आपकी बंश सूप में उतरें, तो उनसे कहिएगा कि इस देश, इस संस्कृति और समाज पर अपनी कृपा बनाये रखें, ताकि हजारों वर्ष बाद भी हमारी पुत्रवधुएँ यूँ ही सज-धज कर गंगा के जल में खड़ी हों और कहें- “उगs हो सुरुज देव……….