भागलपुर, बिहार। मन को स्थिर कर सुख की इच्छा से मुक्त होकर अन्तर सुख में मग्न होकर वाणी को वश में रखना मौन व्रत कहलाता है। महावीर 12 वर्ष व महात्मा बुद्ध 10 वर्ष तक मौन रहने के उपरांत ज्ञान प्राप्त कर सके। महर्षि रमण व चाणक्य भी मौन के उपासक थे। इस सम्बन्ध में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त ज्योतिष योग शोध केन्द्र, बिहार के संस्थापक दैवज्ञ पं. आर. के. चौधरी उर्फ बाबा-भागलपुर, भविष्यवेता एवं हस्तरेखा विशेषज्ञ ने बताया कि:- अध्यात्मिक उन्नति के लिए वाणी का शुद्ध होना अत्यावश्यक है। मौन से वाणी नियंत्रित और शुद्ध होती है। इतना ही नहीं इससे सभी प्रकार के मानसिक विकार समाप्त हो जाते हैं। इसलिए हमारे सनातन धर्म शास्त्रों में मौन का विधान बनाया गया है। ऐसी मान्यता है कि मौन से सभी कामनाएं पूर्ण होती है और साधक शिवलोक को प्राप्त करता है। मौन में निरन्तर श्रेष्ठ चिंतन, मानस जप, ईश्वर स्मरण करना आवश्यक है। शास्त्रानुसार मौन की गणना पांच तपों में की गई है। यानी मन की प्रसन्नता, सौम्य स्वभाव, मौन, मनोनिग्रह तथा शुद्ध विचार ये सभी मन के तप हैं।
मौन की महिमा अपार है। मौन से क्रोध का दमन, वाणी का नियंत्रण, शरीर बल, संकल्प बल और आत्मबल में वृद्धि, मन को शान्ति तथा मस्तिष्क को विश्राम मिलता है जिससे आंतरिक शक्तियों का विकास होता है और ऊर्जा का क्षय नहीं होता है। इसलिए मौन को व्रत की संज्ञा दी गईं है। मौन व्रत हमें आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न बनाती है तथा व्यावहारिक जीवन में भी यह शक्ति के अपव्यय को रोकता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार मौन व्रत से सकारात्मक सोच का विकास होता है तथा निरन्तर मौन व्रत में रहने से शरीर की बीमारियों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है। निरन्तर बोलने से बहुत सारी ऊर्जा की क्षति होती है जिसे मौन व्रत के द्वारा समायोजित किया जा सकता है। इस प्रकार व्रत की महत्ता हमारे शारीरिक और अध्यात्मिक विकास के लिए है। ठीक उसी प्रकार मौन व्रत भी हमारे लिए उपयोगी है। संयम का प्रथम सोपान वाक्-संयम है। वाक्-संयम से विभिन्न अनर्थो का स्वत: शमन होता है और असिमित ऊर्जा का संग्रहण होता है। इसलिए मौन व्रत ऊर्जा संग्रहण की विशेष पद्धति है।
यहाँ यह बतलाना उचित प्रतीत हो रहा है कि महान भविष्यवेत्ता व हठयोगी साधक बाबा-भागलपुर भी मौन के उपासक है और समय-समय पर पूरे वर्षावधि के दरम्यान कई दिनों और महिनों तक मौनव्रत में रहते हैं।

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